ईद का त्यौहार भाईचारे का संदेशवाहक 'मुस्लिम धर्म'
आप सभी को ईद की हार्दिक सुभकामनाये
हाय !दोस्तों आप सभी को ईद की हार्दिक मुबारकबाद | दोस्तों ईद का त्यौहार हमारे देश में भाईचारा का सन्देशा देती है | ईद का त्यौहार इस्लाम धर्म का एक बहुत बड़ा त्यौहार है | रमजान के 30 रोजों के बाद चाँद देखकर ईद मनाई जाती है। इसे लोग ईद-उल-फितर भी कहते हैं। इस्लामिक कैलेंडर में दो ईद मनाई जाती है। दूसरी ईद जो ईद-उल-जुहा या बकरीद के नाम से भी जानी जाती है।
इस्लाम के धार्मिक आधार - इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद साहब थे। इसलिए धर्म का विकास 7वीं सदी में अरब में हुआ था। इस्लाम का शाब्दिक अर्थ है - ईश्वर के प्रति प्रणति अर्थात धार्मिक आत्मसमर्पण की शिक्षा देना। इसके लिए पांच धार्मिक आधार हैं जो नीचे बताये गए हैं -
- मत का उच्चारण - इस्लाम का पहला आधार इसके धार्मिक मत का उच्चारण है। हर एक धर्म में कुछ प्रक्रियाएँ होती है जिनका स्पष्टीकरण भिन्न -भिन्न रूपों में किया जाता है। इसकी अभिव्यक्ति केवल एक वाक्य में की जाती है -"ला इलाह इल्लल्लाह मुहम्मद रसूलल्लाही। "अल्लाह के सिवाय कोई दूसरा ईश्वर नहीं है तथा मुहम्मद इसके देवदूत हैं।
- नमाज - इस्लाम का दूसरा स्तम्भ या चरण नमाज पढ़ना है। प्रत्येक मुसलमान के लिए नमाज पढ़ना नित्य कर्म है। जिसको न करने वाला पाप का भागी बनता है। इस्लाम में सामूहिक नमाज का बड़ा महत्व है। शुक्रवार पवित्र दिन माना जाता है।
- जकात- खैरात इस धर्म का तीसरा आधार है। प्रत्येक मुसलमान का कर्तव्य है की वह अपनी आय का एक अंश नियमित दान के रूप में व्यय करे। कुरान की यह पंक्ति "जब तक अपनी प्रिय वस्तु में से खरच न करोगे तब तक पुण्य को नहीं पा सकते " दान की महत्ता बतलाती है।
- रमजान के महीने में उपवास रखना - इस धर्म में रमजान का महीना पवित्र माना जाता है। क्योंकि इस मास में स्पष्ट मार्ग -प्रदर्शक , मानव शिक्षक कुरान मुहम्मद साहब के पास उतारा गया है , इसलिए रमजान के महीने में उपवास रखने का अत्यधिक महत्त्व बतलाया गया है | उपवास लोगो में गरीबों और भूखों के प्रति करुणा और सहानुभूति का भाव पैदा करता है।
- हज करना -इस्लाम का अंतिम धार्मिक कर्तव्य हज करना है हिन्दुओं की तरह तीर्थयात्रा को इस धर्म का आवशयक अंग माना गया है। प्रत्येक मुसलमान को एक बार हज करने के लिए मक्का जाना जरूरी माना गया है। काबा अरब का प्राचीन मंदिर मक्का में था जिसे तोड़कर एक पत्थर के रूप में स्थापित किया जिसका चुम्बन लेना प्रत्येक हज यात्री का धार्मिक कर्तव्य है।
इस्लाम धर्म में आचार -विचार अर्थात नैतिक शिक्षा
इस्लाम धर्म के नैतिक विचार का समावेश कुरान में है अर्थात नैतिकता का चरम मापदंड कुरान ही है क्योकि उसमे ईश्वरीय आदेश सन्निहित है। वैसे कर्म जो कुरान के द्वारा आदिष्ट हैं उचित हैं और वे जो निषिद्ध हैं अनुचित हैं। इस प्रकार कुरान के आदेशों पर उचित और अनुचित निर्भर करता है। प्रो० खगेन्द्र नाथ मित्र की ये पक्तियां इस सिलसिले में उल्लेखनीय हैं - इस्लाम के अनुसार 'पाप' कुरान में वर्णित नियमों का निषेध तथा 'सद्गुण' उनका पालन करना ही है।
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इस्लाम में सिर्फ आदेशों का ही वर्णन नहीं है अपितु सद्गुण और दुर्गुण का स्पष्ट विवेचन हुआ है। शुद्धता अर्थात शुचिता, ईमानदारी , मित्रता , स्वच्छता , क्षमा , सहानुभूति , न्याय , प्रेम , करुणा , दान , नम्रता , सच्चाई , मर्यादा ,कृतज्ञा, सहस, धैर्य, अच्छाई इत्यादि को धर्म कहा गया है। लोभ, चुगली, रिश्वत, प्रवंचन, मिथ्यावाचन, अभिमान, ईर्ष्या , अपयश, आत्महत्या, फिजूलखर्ची, कृपणता आदि को अधर्म कहा गया है।
इसके अतिरिक्त सूद लेना महापाप समझा गया है , जुआ खेलना पाप कहा गया है और मदिरापान (शराब) का निषेध किया गया है।
मुहम्मद साहब और उनके शिष्यों के बीच कुछ वार्तालाप मिलते हैं जिनसे उनके नैतिक विचार स्पष्ट होता है। किसी समय मुहम्मद साहब से शिष्यों ने पुछा - किस प्रकार का मनुष्य श्रेष्ट है ? तब उन्होंने उत्तर दिया - वह व्यक्ति जिसका हृदय निर्मल है जो सत्यभाषी है। इस पर शिष्यों ने पुछा -निर्मल हृदय वाला व्यक्ति किसे कहते हैं ? देवदूत ने जबाब दिया - वह जो पवित्र हो , धर्मात्मा हो , जिसमें पाप , दोष , असंतोष तथा ईर्ष्या का समावेश नहीं हो। एक समय देवदूत ने शिष्यों से प्रश्न पुछा की वे किस प्रकार के व्यक्ति को शक्तिशाली समझते हैं ? शिष्यों ने उत्तर दिया की वे उस व्यक्ति को शक्तिशाली समझते हैं जो लोगों को पराजित करता है। देवदूत ने इसका खंडन करते हुए कहा की शक्तिशाली व्यक्ति उसे कहा जाता है जिसने क्रोध पर विजय प्राप्त कर ली। यह मानवतावादी सन्देश ही विश्व - शांति एवं प्रेम का प्रतीक है।
मुहम्मद साहब और उनके शिष्यों के बीच कुछ वार्तालाप मिलते हैं जिनसे उनके नैतिक विचार स्पष्ट होता है। किसी समय मुहम्मद साहब से शिष्यों ने पुछा - किस प्रकार का मनुष्य श्रेष्ट है ? तब उन्होंने उत्तर दिया - वह व्यक्ति जिसका हृदय निर्मल है जो सत्यभाषी है। इस पर शिष्यों ने पुछा -निर्मल हृदय वाला व्यक्ति किसे कहते हैं ? देवदूत ने जबाब दिया - वह जो पवित्र हो , धर्मात्मा हो , जिसमें पाप , दोष , असंतोष तथा ईर्ष्या का समावेश नहीं हो। एक समय देवदूत ने शिष्यों से प्रश्न पुछा की वे किस प्रकार के व्यक्ति को शक्तिशाली समझते हैं ? शिष्यों ने उत्तर दिया की वे उस व्यक्ति को शक्तिशाली समझते हैं जो लोगों को पराजित करता है। देवदूत ने इसका खंडन करते हुए कहा की शक्तिशाली व्यक्ति उसे कहा जाता है जिसने क्रोध पर विजय प्राप्त कर ली। यह मानवतावादी सन्देश ही विश्व - शांति एवं प्रेम का प्रतीक है।
शिष्टाचार :-
इस संसार में विभिन्न प्रकार की राष्टीयताओं, मजहबों संप्रदायों, जलवायु, वातावरण आदि का जो अंतर पाया जाता है और राजनैतिक, भौगोलिक, आर्थिक, सामजिक, आदि दृष्टियों से यह जिस प्रकार हजारों भागों में बाँटा हुआ है, उसे देखते हुए प्रत्येक मनुष्य से शिष्टाचार के एक से नियमों के पालन की आशा करना युक्तियुक्त नहीं है। हिन्दू मुसलमान और इशाईयोँ के जातीय शिष्टाचार में अनेक बातें एक - दूसरे से भिन्न हैं। फिर भी वर्तमान समय में वैज्ञानिक अविष्कारों के कारण सब लोगों का मिलना - जुलना और उनका पारस्परिक व्यवहार , लेन - देन इतना अधिक बढ़ गया है की अब शिष्टाचार के कुछ ऐसे सभ्यता और शिष्टाचार में बाह्य नियमों और कार्यों पर अधिक जोर दिया गया है वहीँ भारतीय संस्कृति शिक्षा देती है की हम अपने परिचितों के प्रति हृदय में सदभावना एयर सहृदयता भी रखें। इन आंतरिक भावनाओं से ही हमारे व्यवहार में वह वास्तविकता उतपन्न होती है, जिसकी तरफ सच्चे व्यक्ति आकर्षित होते है।
शिष्टाचार और सहृदयता का परस्पर बहुत अधिक संबंध हैं। जिसकी विचारधारा और मानसिक वृत्तियाँ शुष्क , नीरस और कठोर हो गई हैं , वह किसी के साथ प्रेमपूर्वक नहीं मिल सकता , न किसी के साथ हार्दिक शिष्टाचार का व्यवहार कर सकता है। इसका परिणाम यह होगा की दुसरे लोग भी उससे उपेक्षा तथा पृथकता का व्यवहार करेंगे और वह संसार में अकेला ही अपने जीवन को व्यर्थ में खोता रहेगा। सहृदयता एक ऐसा गुण है,जिससे एक साधारण श्रेणी का व्यक्ति भी अनेक लोगों का प्यार मित्र , घनिष्ट सखा बन जाता है और साधारण साधनों वाला होता हुआ भी आनंदमय जीवन व्यतीत कर लेता है।
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शिष्टाचार के इन नियमों में सबसे पहले यही शिक्षा दी गयी की अपने यहाँ जो आए, उसका आदर केवल ऊपर से ही नहीं वरन मन, नेत्र, मुख और वाणी सब तरह से करें। सबसे पहली बात यह है की हम अपने मन में निश्चय रखें की किसी आंगतुक का सत्कार - सेवा करना हमारा मानवीय कर्तव्य है। यदि हम उसका पालन नहीं करते तो मनुष्यता से गिरे हुए सामान्य पशु की तरह ही मने जायेंगे। यही भारतीय शिष्टाचार का मूल है, जिसके आधार पर यहाँ अतिथि -सत्कार गृहस्थ का सबसे बड़ा धर्म बतलाया गया है। यह देश क्रियात्मक शिष्टाचार था , जेसे प्रकट होता है की हम वास्तव में कष्ट सहन , त्याग, परिश्रम करने को तैयार हैं। इस प्रकार के स्वागत - शिष्टाचार का प्रभाव ही मेहमानों पर चिरस्थाई रह सकता है।
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