हम सुसंस्कृत बने, संस्कारवान बने

हम सुसंस्कृत बने, संस्कारवान बने 


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शिस्टाचार मनुष्य का आभूषण है - संस्कारो से वित्त शुध्दि होती है | संस्कृति हमारे अंतस्थ दुष्चिंतन का मार्जन करने की शक्ति का नाम है और संस्कार उसका माध्यम है| 

संस्कारों का सर्वाधिक महत्व चित्त -शुद्धि में है | मन की मलीनता ही सबसे अधिक दुखदायी है | काया की मलीनता तो साबुन - पानी से धोयी भी जा सकती है , पर मन तो न जाने कहाँ कहाँ भटकता रहता है और प्रतिपल अशुभ चिंतन के द्वारा प्रदूषित होता रहता है | इन्द्रियों का प्रेरक भी वही है, इसलिए उसी की शुद्धि का निरंतर ध्यान एवं प्रयत्न करना चाहिए | योग सूत्र में चित्तवृत्ति निरोध को योग कहा गया है , जबकि निरोध करना सहज कार्य नहीं है | अतः सर्वप्रथम चित्त को अशुभ से हटाकर सुभप्रवृत्तियो में लगाना चाहिए , क्योंकि चित्त को कुछ न कुछ अवलंबन तो अपेक्षित ही है | यदि उच्चादर्श एवं ध्येय में हम लगे रहेंगे तो बुरी आदतों की ओर हमारा ध्यान नहीं जाएगा | यदि कभी गया भी तो बुरा करने के लिए समय ही न मिलेगा |

आत्मनिरीक्षण प्रतिपल नहीं तो कभी कभी करना आवश्यक है | उसके द्वारा जो दोष हमारे अंदर दिखाई दें , उनका निवारण कर एवं जिन गुणों की कमी है , उनकी पूर्ति करते रहा जाये , यही सस्कृति है |

संस्कृति का अर्थ मार्जन भी है | अर्थात आत्मा के दोषों का परिमार्जन , परिस्कृति एवं गुणों का विकास ही संस्कृति है | जिन कार्यों से हमारा उत्कर्ष हो , हृदय की शुद्धि हो , उन्हें ही संस्कृति कहना चाहिए | आधुनिकतम नृत्यगानादि को संस्कृति का परिचयक नहीं समझना चाहिए |

सामाजिक व्यवहार में शिष्टाचार-

  1. नित्य प्रातःकाल उठकर गुरुजनों , माता -पिता आदि के चरण -स्पर्श करना संस्कृति का विशिष्ट नियम है | 
  2. अपने घर पर किसी व्यक्ति के आने पर उसका प्रेमपूर्वक अभिवादन करना चाहिए | उसके सामने हाथ -पैर फैलाकर नहीं बैठना चाहिए | 
  3. आंगतुक सम्माननीय व्यक्तियों के सामने घर के किसी व्यक्ति या सेवक पर क्रोध प्रकट करना या गलतियाँ देना अनुचित है | 
  4. अपने से बडे या सम्मानीय व्यक्तियों के सामने कभी उनसे उच्च आसान पर नहीं बैठना चाहिए | 
  5. जँभाई , छींक , खांसी आदि के आने पर मुँह के सामने रुमाल लगा लेना सभ्यता का चिन्ह है | 
  6.  मार्ग में जाते समय यदि किसी परिचित से भेंट हो जाये तो यथासंभव स्वयं अभिवादन करना चाहिए | वृद्ध रोगी ,स्त्री , अपंग व्यक्ति आदि के लिए रास्ते से हटकर मार्ग देना चाहिए | 
  7. किसी के घर जाकर घर के मालिक और अन्य लोगों की सुविधा का ध्यान रखकर ही व्यवहार करना चाहिए | 
  8. सार्वजनिक उत्सव या सभा - सम्मेलन के बीच अकारण - अकस्मात उठकर चल देना असभ्यता का सूचक माना जाता है | ऐसे अवसरों पर जाना ही नहीं चाहिए या पीछे की तरफ ऐसी जगह पर बैठना चाहिए ,जहाँ से उठकर चलने से किसी का ध्यान आकर्षित न हो | इसी प्रकार कथा - वार्त्ता , सभा आदि में सोने या ऊँघने लगना भी अनुचित है | 
  9. पड़ोसियों के प्रति सदा प्रेम और शिष्टाचार का व्यवहार रखना चाहिए | 

संयम व सादगी का जीवन 

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प्रकृति में साधन सीमित व आवश्यकता भर के लिए हैं | गाँधी जी ने कहा था - "प्रकृति में सीमित संपदा है जिससे सभी की आवश्यकताएँ भर पूरी हो जाएँ अर्थात उसे मिल - बाँटकर खाएँ | " 
औसत नागरिक स्तर का जीवन जिया जाए , इससे तृष्णा को पूरा नहीं किया जा सकता | वस्तुतः महत्वसाधनों या परिस्थितियों का नहीं वरन उसके सदुपयोग का है | जिन महापुरुषों ने संयम व सादगी का जीवन जिया , उनमे कुछ प्रमुख हैं -
*             जिन महापुरुषों ने औसत सत्तर के जीवन से ऊँचा उठकर समाज , राष्ट्र के लिए कुछ अनुकरणीय कर दिखाया , जिनने बाधाओं से मुकाबला करते हुए पहली चोट वित्तेषणा पर की | कार्ल मार्क्स ने जीवकोपार्जन के साधनों को कभी महत्त्व नहीं दिया | उनके मन में विश्व के करोड़ों पीड़ितों ,दलितों के लिए कसक थी | दिनभर पुस्तकालय में बैठकर अध्ययन करना , कई बार घर में चूल्हा तक नहीं जलना , सामान गिरवीं रख कर भोजन जुटाना , गरीबी के कारण दो बच्चो का काल कवलित होना , ऐसी परिस्थितियों में भी विचलित न होकर प्रमुख लक्ष्य मानवता की सेवा में लगे रहना | 
*           महात्मा गाँधी के संबंध में हम जानते है की वे चाहते तो अपने वंशजों के लिए लाखों करोड़ों की संपत्ति जमा कर सकते थे ,पर उनने राष्ट्र सेवा और दरिद्र नारायण की सेवा को लक्ष्य बनाया | वे गरीबों की तरह औसत भारतीय स्तर का जीवन जीते रहे अपने लिए कुछ नहीं बचाया |
*          रूस का कायाकल्प कर देने वाली लेनिन सामंत परिवार से होते हुए भी सामंतो के खिलाफ लड़ाई लड़े | जब उनके हाथ में सत्ता आई तो वे टेवल के दराज में सूखी रोटी खाकर राष्ट्र और समाज की सेवा में जुटे रहते |
*          इसी तरह राणाप्रताप से लेकर भगतसिँह , चंद्रशेखर आजाद , अरविन्द , तिलक , गोखले , सुभाष चंद्र बोष आदि राष्ट्रिय नेताओं ने भी परिश्रम करके अपनी शक्ति - सामर्थ्य एवं धन लिप्सा को राष्ट्र की वेदी पर मनुष्य जाति एवं समाज के लिए स्वाहा कर दिया |
*           महावीर प्रसाद द्धिवेदी ने साहित्य सेवा को लक्ष्य बनाकर काम आवश्यकताएँ , सादा जीवन और उद्देश्यपूर्ण प्रवृत्तियों को अपनाते हुए संतोषी जीवन जीकर सारा समय जीवन की लक्ष्य - पूर्ति तथा सरस्वती की सेवा में लगाया |
*            प्रसिद्ध समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने आय बढ़ाने के स्थान पर समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने हेतु अपनी आय का अधिकांश भाग निर्धन छात्रों की सहायता में लगा दिया |
             उक्त उदाहरणों के माध्यम से हमें जानकारी मिलती है की जितने भी महापुरुष हुए , वे धन बटोरने के स्थान पर समाज में व्याप्त कुरीतियों को मिटाने और समाज व राष्ट्र की सेवा में होम कर अपना नाम इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर अंकित कर गए इनका संपूर्ण जीवन शरीरगत सुख - सुविधा के स्थान पर आत्मिक रहा है और वे अनेक , दुःख - दर्दों से भरे लोगों की सेवा में जीवन अर्पित कर गए |
              स्वामी विवेकानंद , स्वामी दयानन्द , स्वामी श्रद्धानन्द  आदि युवा संतो ने भी स्वयं के जीवन के सुख - सुविधा की अपेक्षा राष्ट्र , समाज व दरिद्रो के जीवन से अज्ञानता , दरिद्रता तथा भटकाव दूर करने में अपनी शक्ति - सामर्थ्य तथा  सम्पदा को समर्पित कर सच्चे भारतीय संस्कृति तथा धर्म के प्रेरणास्रोत बन युवाओ के जीवन के प्रकाश कर चिरस्मरणीय हो गए |

            हम भी समय का सदुपयोग सद्कार्य के लिए करना सीखें | परम पूज्य गुरुदेव श्रीदेव श्रीराम शर्मा आचार्य कहते थे की देह त्याग के बाद मुझसे यमराज भी पूछे तो मैं आपने एक - एक मिनट का हिसाब दे सकता हूँ | उन्होंने कहा की जीवन का अर्थ है समय | अपना अमूल्य समय आलस्य एवं प्रमाद में न गवाएं | संयम के संबंध में भी विद्वानों , मनीषियों की बहुत सारी उक्तियाँ है | संयम के अभाव में मनुष्य आध्यात्मिकता , धार्मिकता , आस्तिकता की उचाईयों के रहस्य को प्राप्त नहीं कर सकता | संतोषप्रद एवं सादगीपूर्ण जीवन के संबंध में श्रीराम शर्मा जी का कथन है - "प्रसन्न रहने के दो ही उपाय हैं - आवश्यकताएँ काम करें और परिस्थितियों से तालमेल  बिठायें | " उन्होंने स्वयं ऐसा जीवन जिया और सच्चे संत जीवन को चरितार्थ किया |
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